ज़रा सोचो
कभी ये दिन भी आयेगा ज़रा सोचो
कली को फूल खायेगा ज़रा सोचो
सभी को रौंदते निकला बेरहमी से
कहाँ पर रथ ये जायेगा ज़रा सोचो
मिलेंगे ना तुम्हे माने किताबो मे
तजुर्बा साथ लायेगा ज़रा सोचो
बचाओ रोशनी थोडी वफा़ओ की
घना अंधेर छायेगा ज़रा सोचो
नही है याद दिल्ल्ली को सम्राटो की
वो किसको याद आयेगा ज़रा सोचो
अगर तुम भी रहे मश्ग़ुल सियासत मे
ग़ज़ल को कौन चाहेगा ज़रा सोचो
कली को फूल खायेगा ज़रा सोचो
सभी को रौंदते निकला बेरहमी से
कहाँ पर रथ ये जायेगा ज़रा सोचो
मिलेंगे ना तुम्हे माने किताबो मे
तजुर्बा साथ लायेगा ज़रा सोचो
बचाओ रोशनी थोडी वफा़ओ की
घना अंधेर छायेगा ज़रा सोचो
नही है याद दिल्ल्ली को सम्राटो की
वो किसको याद आयेगा ज़रा सोचो
अगर तुम भी रहे मश्ग़ुल सियासत मे
ग़ज़ल को कौन चाहेगा ज़रा सोचो
2 comments:
sundar...
डा. साब - ग़ज़ल के चाहने पर - दुष्यंत कुमार जी की रचनावली (चार भागों में) - किताबघर प्रकाशन से आ गई है - दिल्ली में श्रीराम सेंटर की दूकान से मैंने गए हफ्ते ली - सादर मनीष
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