फूलों को साँस लेने दो
(‘स्लम डॉग मिलेनिअर’ फिल्म के ‘जय हो’ गीत के लिए
‘ऑस्कर २००९’ जितने वाले गुलजा़र साहब को सादर समर्पित.
‘गुलोंको साँस लेने दो’-यह रदीफ़ उन्ही की देन है।)
हटाओ काग़ज़ी घूँघट गुलों को साँस लेने दो
बदलती है खुशी करवट गुलों को साँस लेने दो
रहे वे मुस्कुराते तो मिलेंगी ज़िंदगी तुमको
बने ना दिल कभी मरघट गुलों को साँस लेने दो
तुम्हारे साथ गायेंगे,तुम्हारे साथ रोयेंगे
बडे़ अल्हड़,बडे़ नटखट गुलों को साँस लेने दो
हवाओ के लिफ़ाफे़ मे छुपा पैग़ाम खु़शबू का
ज़रा पलको के खोलो पट गुलोंको साँस लेने दो
इन्ही से जान लगती है मकानो मे,किवाडो़ मे
सजाते आपकी चौखट गुलोंको साँस लेने दो
लुभाती है अदा प्यारी...मगर मेरी ज़रा मानो
हटे रुख़्सार से ये लट गुलों को साँस लेने दो
जहाँ पर बाँसुरी बजती वहाँ ना बंदूके तानो
जमुनाजी का है ये तट गुलों को साँस लेने दो
4 comments:
अच्छी गज़ल है।बधाई।
हाँ जी गुल्ज़ार को ऐसा तोहफ़ा ज़रूर पसंद आयेगा!
परमजीत बाली जी, विनय जी,
बहोत बहोत शुक्रिया।
कागजी घुंघट की बात क्या खुब कही.......शर्म भी भीतर ही भीतर मुस्कुरारही होगी........वा.....आशा है....इसी तरहा से आप के ब्लॉगपर गज़लो की रौनक बनी रहेगी........
Post a Comment